Sunday, August 05, 2012

Bored Bakaiti



कुछ दिन से ऑफिस में bore हो रहा हूँ. पहले कॉलेज में होता था. अब यहाँ हो रहा हूँ.  
लद्दाख जाने का प्रोग्राम बना है. शायद बैठा बैठा उसके दिन ही गिन रहा हूँ. कुछ लिखने का भी मन कर रहा है. सोचा था आ कर ही कुछ लिखूंगा. कुछ तो punchlines सोच भी ली थी. मसलन, “दिल्ली हो या दरभंगा, इससे नीला आसमान तो शायद किसी धार्मिक सीरियल में कैलाश पर्वत पर भी नहीं दिखाते.” अब ये लाइन तो यहाँ ठेल दी है. खैर, असल पोस्ट के लिए किसी और झूठ की तलाश कर ली जायेगी.

आजकल हमें ट्विटराने (Twitter) का भी चस्का लगा है. मतलब account तो बरसों से था. कभी नज़र फेर लेते थे तो कुछ लोगों की ट्वीट अच्छी भी लग जाती थी. और  फिर उन्हें हम अपने 43 followers के दरमियान फैला भी देते थे. 43 follower . जिनमे से 40 तो उस किस्म के जंतु थे जिन्होंने हमें इस आस में फालो किया था की हम पलट कर उन्हें भी फालो करेंगे और फिर ऐसा न करने के बावजूद हमें अनफालो करना भूल गए. बाकी तीन घर वाले हैं जिन्होंने इसलिए फालो किया जिससे की निगरानी रह सके कि घर में मधु-मिश्री सी बातें करने वाला लौंडा कहीं बाहर जाकर हनी सिंह तो नहीं बन जाता. अब उन्हें block भी नहीं कर सकता नहीं तो पता लगे कि अंदेशे अंदेशे में ही लड़का दुनिया से शेष हो गया.

एक Twitter बड़ी अद्भुत चीज़ है. आप चाहें तो दुनिया भर के बकवास सुन सकते हैं . और न चाहें तो क्या ही है? रिकॉर्ड करके अपनी ही बकवास सुनते रहिये. फिलहाल तो हमें लोगों कि चर्चायात्रा सुनने में ही आनंद आ रहा है. स्वयं ज्यादा चुपचाप ही रहते हैं कि कहीं इधर मुंह खोलें और उधर हमारे बेवक़ूफ़ होने का प्रमाण साक्षात् हो जाये. अब चुप रहकर ही इतना सारा ज्ञान प्राप्त हो जाता है. जैसे आजतक मैंने सत्यमेव जयते का कोई भी एपिसोड नहीं देखा. अब कामक़ाज़ी व्यक्ति हैं. वेल्ले थोड़े न हैं. तभी तो सन्डे सोने में गुजारना पड़ता है. पर ट्विट्टर कि ज्ञानधारा में डूब डूब कर जो हमने अपने दोस्तों के साथ वितंडे या फिर अपनी भाषा मैथिली में कहें तो “घमर्थन” किये हैं, कि वो भी नज़रें तरेर कर हम से कहते है, “साले, सारा दिन तो हमारे साथ पड़ा था. ये कब देख लिया तूने?” अब उन्हें कह देते हैं कि “यार अंटी में हमने चाँद छुपा रखा है. दिमाग पर रौशनी पड़ती रहती है.” चाँद नहीं है तो क्या, पृथ्वी तो है. पृथ्वी माने दुनिया. दुनिया माने ट्विट्टर!!

खैर, पिछले कुछ दिनों में दुनिया (असली वाली) काफी बदल गयी है. या फिर यूँ कह लीजिए कि दुनिया(ट्विट्टर वाली ) काफी हिल गयी है. गुवाहाटी का कांड, राजेश खन्ना की मौत और अब आसाम के दंगे. TOTO (Topic Of Today’s Outrage) decide करने वालों के दोनों हाथों में TOTO हैं.

गुवाहाटी पर हमने कुछ लिखा तो था, पर वो ड्राफ्ट किसी फोल्डर में पड़ा अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है. हमने सोचा औकात में रहते हैं. इतने सीरिअस ज्वलंत आगभुभुक्का टापिक पर मुंह मार कर काहे को बजरबट्टू बनें. चादर के हिसाब से पैर फैलाते हैं. बाकी आगे का तो कोई भरोसा है नहीं. दिमाग ही तो है. बेमतलब के पारे के माफ़िक इधर उधर ढुलमुलाता रहता है.

तो पिछले दिनों श्री राजेश खन्ना साहब गुजार गए. क्या कहा? याद नहीं? अब बात ही कसूरवार है. साली पुरानी जो है. खैर राजेश खन्ना ने भी क्या किस्मत पायी थी. 10 साल कि चांदनी और फिर जो भुलाये , दुनिया को याद दिलाने के लिए उन्हें मरना पड़ा. और 10 दिन बाद दुनिया फिर भूल गयी. अब उनकी सालगिरह या बरसी का इन्तेज़ार करते हैं.

हमने उनकी फिल्में तो नहीं देखी, बस नगमें सुने हैं. और अगर याददाश्त के घोड़े कूचे भरें तो उन नगमों को शक्लें अख्तियार करते हुए बस दूरदर्शन पर “रंगोली” में देखा है बचपन में. उस से ज्यादा कुछ याद करने कि कोशिश करूं तो अक्सरहां वही घोड़े हमें धता बता जाते हैं. पर साथ में हमारी अम्मा  काका के प्रति उपेक्षा भी याद आती है. बकौल उनके ,उन्होंने अपने बेटी कि उम्र की डिम्पल कपाडिया से शादी करके फिर उसे छोड़ कर उसकी जिंदगी बर्बाद कर दी थी. पूरा Twitter उनकी याद में टसुए बहा रहा था. पर शायद हमारी अम्मा ने उनके लिए एक आह तक न निकली होगी.   शायद सही भी था उनका सोचना. थोड़ी traditional तो हैं वो . अब इस बात पर हमने आज तक उनका एहतिजाज़ नहीं किया . अब conformist, modernist या फिर fanboy कहलाने कि ललक में करेंगे भी नहीं. वैसे हमारा राजेश खन्ना से कोई लगाव रहा भी नहीं . शायद मेरी generation के काफी लोग इस ज़ज्बात से इत्तेफाक रखते भी हों. गाने किशोर कुमार ने गाये थे, पंचम ने compose किये थे. राजेश खन्ना तो यूँ कहें कि आज से कई बरस पहले ही गुजर गए थे.

गए दिन और भी बहुत कुछ हुआ. बम फटे. पुलिस को लगा किसी की मसखरी है. बाद में शायद यह कह कर सफाई दें कि अगर दहशतगर्द मजाक कर सकते हैं तो हम क्यूँ नहीं ? और कुछ ओलंपिक में मेडल भी जीते. बड़ा अच्छा लगा. और साथ ही ये भी पता लग गया कि गोल्ड छोड़िये, कोई भी पदक जीतना कितना मुश्किल होता है. अभिनव बिंद्रा के लिए दिल में जो इज्ज़त थी और भी बढ़ गयी. पर जो बात हमें सबसे ज्यादा मुतास्सिर कर गयी वो है इस्मत चुघताई की जीवनी और उर्दू ज़बान. अभी अभी पढ़ा है. और इस पोस्ट में जो इधर उधर मुख्तलिफ उर्दू के अलफ़ाज़ इस्तेमाल कर रखे हैं, वो हमने वहीँ से टेपे हैं. दो दिन में हम उर्दू के रासरचैया नहीं बन गए हैं.

खैर, पोस्ट लिखना इसलिए शुरू किया था क्योंकि ऑफिस में बोर हो रहे थे. अब नहीं हो रहे. तो बस काम धंधे पर चलते हैं अब.

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